महाराणा कुम्भा (1433 - 1468 ई.)
महाराणा कुम्भा राजस्थान के महत्वपूर्ण शासको में एक है। मेवाड़ के लिए इस राजा की भूमिका महत्वपूर्ण योगदान रखती है चाहे वह कला - संस्कृति का क्षेत्र हो या युद्ध का मैदान। इस राजा ने हर क्षेत्र में अपने लोहा मनवाया।
महाराणा कुम्भा |
महाराणा कुम्भा मोकल और सौभाग्य देवी का पुत्र था। 1433 में मेवाड़ का शासक बना। उस समय के साहित्य ग्रंथ गीतगोविन्द की टीका और कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में कुम्भा को महाराजाधिराज, रावराय, राणेराय , चापगुरु, राय रायन , राणोरासो- साहित्यिकारो का आश्रय दाता, राजगुरु - राजनितिक सिद्धांतो में दक्षता, दानगुरु - महादानी, हालगुरु - पहाड़ी दुर्गो का स्वामी, परमगुरु - समय का सर्वोच्च शासक, छापगुरु - छापामार में पारंगत, नरपति, अश्वपति, गजपति आदि उपाधिया प्रदान थी। कुम्भा राजपूताना के सभी शासक में सर्वोपरि था इस लिए उसे हिन्दू सुरताण तथा संगीत प्रेमी होने के कारण अभिनव भारताचार्य व वीणावादन प्रविणेन कहा जाता था।
महाराणा कुम्भा ने सिंघासन पर बैठने के बाद सबसे पहला कार्य चाचा और मेरा से अपने पिता के मौत का बदला लिया। चाचा के पुत्र एच्का और महपा पंवार मांडू के सुल्तान के सवा में चले गए। जो शत्रुता महाराणा क्षेत्रसिंह के समय शुरू हुई थी वह और पक्की हो गयी।
सारंगपुर का युद्ध (1437 ई.)
सारंगपुर का युद्ध मेवाड़ के महाराणा कुम्भा और मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के बीच हुआ। इस युद्ध में महाराणा कुम्भा की विजय हुई। इसका तात्कालिक कारण था कि महपा पंवार को मालवा के सुल्तान के द्वारा शरण दिया जाना। इसके अलावा दोनों ही राजा राज्य विस्तार के इच्छुक थे। जीत की ख़ुशी में महाराणा कुम्भा ने विजय स्तभं निर्माण करवाया।
मेवाड़ - गुजरात सम्बन्ध
दूसरी और महाराणा कुम्भा की गुजरात के सुल्तान से शत्रुता नागौर के शासक शम्स खा के कारण हुई। शम्स खा पहले कुम्भा के मदद से नागौर की गद्दी पर बैठा परन्तु बाद में गुजरात के सुल्तान की शरण में चला गया। जब कुम्भा ने इसका विरोध किया तो शम्स खा गुजरात की सुल्तान की सहायता से मेवाड़ का मुकाबला करने लगा तब कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण कर दिया और नागौर मेवाड़ के अधिकार में आ गया। कुम्भा ने नागौर को चारागाह बना दिया।
चम्पानेर की संधि (1456 ई )
मालवा के सुल्तान और गुजरात के सुल्तान चम्पानेर की संधि की जिसमे यह तय हुआ की मालवा और गुजरात की सयुक्त सेना मेवाड़ पर आक्रमण करेगी। इस संधि के तहत दोनों की सयुक्त सेना ने आक्रमण किया परन्तु परिणाम विपरीत था और दोनों सेना को मेवाड़ की सेना से मुँह की खानी पड़ी।
अपने अंतिम समय में राणा उन्मादी रोग से ग्रसित हो गया था। एक दिन उसके पुत्र उदा ने उसकी हत्या कर दी और स्वयं को राणा घोषित कर दिया।
कुम्भलगढ़ दुर्ग |
कुम्भा एवं स्थापत्य
कवि श्यामलदास के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गो में से कुम्भा ने 32 दुर्गो का निर्माण करवाया था। जिनमे से सिरोही की निकट बसंती दुर्ग, मेरो को रोकने के लिए मचान दुर्ग और कोलन और बदनौर के निकट बैराट के दुर्ग और भोमट क्षेत्र में अनेक दुर्ग बनवाये। आबू में 1509 ई में अचंलगढ़ दुर्ग बनवाया। कुम्भलगढ़ का दुर्ग कुंभा की युद्ध कला और स्थापत्य रुचि का महान चमत्कार कहा जा सकता है। महाराणा कुम्भा ने चितौड़गढ़ दुर्ग का पुनः निर्माण करवाया।
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति
कुम्भल गढ़ प्रशस्ति की रचना 1460 ई में पूर्ण हुई। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति का रचियता कवि महेश ही था।
विजयस्तम्भ
विजयस्तम्भ का निर्माण कर्ता व सूत्रधार जैता और उसके पुत्र नापा, पोमा व पुंजा थे। यह 30 फीट चौड़ा, 122 फुट ऊँचा है। यह स्तम्भ 9 मंजिला था। 9 वि मंजिल बिजली गिरने से टूट गई। जिसे राणा स्वरुप सिंह ने पुनर्निर्मित करवाया। इसे भारत मूर्ती कला का विश्वकोश कहा जाता है।
विजय स्तम्भ |
कीर्ति स्तम्भ
इसे 1460 ई में बनवाया। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के रचियता कवि , अत्रि थे। लेकिन इनका निधन हो जाने का कारण इस प्रशस्ति को उनके पुत्र महेश ने पूरा किया। इस पर तीसरी मंजिल पर आरबी में 9 बार अल्लाह शब्द लिखा हुआ है।
महाराण कुम्भा न केवल युद्ध कला के प्रेमी थे बल्कि विद्वान् और विद्यानुरागि भी था। एकलिंगमहामात्य से विदित होता है की वेद, स्मृति, मींमासा, उपनिषद, व्याकरण,राजनीती और साहित्य में बड़ा निपुण था। संगीतराज,संगीतमीमनासा एवं सूडप्रबंध इसके द्वारा रचित संगीत ग्रन्थ थे। संगीत राज के पांच भाग थे - पाठ रतन कोष , गीत रतन कोष, वाद्य रतन कोष, नृत्य रतन कोष और रास रतन कोष। कुम्भा संगीत क्षेत्र में भी निपुण था इस लिए उसे अभिनव भारताचार्य भी कहा जाता था। इसके आलावा और भी कई ग्रन्थ कुम्भा द्वारा लिखे गए।
ये भी पढ़े :
कोपेन का जलवायु वर्गीकरण
गत परीक्षा में पूछे गए प्रश्नो देखे : #ygk rajasthan
No comments:
Post a Comment